गुरुवार, 14 दिसंबर 2017

धूप एक नन्हीं सी

धूप एक नन्हीं सी

धुंध को ठेल कर
हवा से खेलकर
धूप एक नन्हीं सी
धरती पर आई


बगिया के फूलों पर
ओज फैलाती है
फुनगी पर बैठकर
बच्चों को बुलाती है
सन्नाटों के भीड़ में
उनको न देखकर
कूद फांद भागकर
की है ढूँढाई

धूप एक नन्हीं सी
धरती पर आई

स्कूल की कोठरी में
पोथियों का ढेर है
अनगिन है सी एफ एल
दिखता अबेर है
नन्हें नन्हें हाथों से
कागज़ पर रंग रहे
सूरज की रौशनी
देख देख धूप को
आती रुलाई

धूप एक नन्हीं सी
धरती पर आई

खाट पर सास है
कुर्सी पर ससुर जी
अंदर के हीटर में
सीटर पर बहूजी
एप को खोलकर
दुनिया से बतियाई
दिखती नहीं कहीं
ननद भौजाई

धूप एक नन्हीं सी
धरती पर आई

चावल हैं चुने हुए
दाल भी भुने हुए
लहसुन की कलियाँ
छीलकर मँगवाई
कटे हुए कटहल में
मसालों के चूरन से
कूकर में झटपट
सब्जी बनाई
देती है बार बार
थकन की दुहाई

धूप एक नन्हीं सी
धरती पर आई
--ऋता शेखर "मधु"

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (16-12-2017) को "सब कुछ अभी ही लिख देगा क्या" (चर्चा अंक-2819) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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