बुधवार, 30 नवंबर 2016

वंश - लघुकथा

वंश
पूरा घर नन्हे रौशन के पहले जन्मदिन की तैयारी में व्यस्त था| किन्तु रौशन की माँ कमला निर्विकार भाव से बैठी थी| दो वर्ष पहले की बात उसे परेशान कर रही थी|
'बहुरिया, चल तैयार हो जा| बहुत पहुँचे हुए बाबा आए हैं| सायद कोनो किरपा हो जाए तब यहाँ भी बाल गोपाल की किलकारी गूँजे|'
'ना अम्मा जी, हम नहीं जाएँगे| हमरी अम्मा कहती थी कि जवान बेटी बहु को कोई बाबा उबा के पास नहीं जाना चाहिए|'
'काहे नहीं जाना चाहिए| अब जादे सिखाओ मत अउर चुपचाप तैयार हो जाओ|'
'अरे , काहे बहस लड़ाती है| अम्मा कह रही है तो जाओ न|'
पति की बात सुनकर बड़े बेमन से कमला तैयार हो गई|
'शुभ मुहुरत में बहुरिया को झाड़ फूँक देंगे| उसको यहीं छोड़ जाओ| मुहुरत आधी रात को है' बाबा ने कमला के चेहरे को पढ़ते हुए कहा|
'नहीं अम्मा, हमको छोड़ के मत जाओ|'
''छोड़ के जाने कौन कह रहा है| तुम्हारी अम्मा भी रहेगी|''
यह सुन कमला आश्वस्त हो गई| मुहुर्त देखकर बाबा ने कुछ जड़ी बूटी पीने को दिया| उसे पीकर कब वह बेहोश हो गई पता ही नहीं चला| जब होश आया तो सास के पास ही थी|
'बहुरिया, उठ कर रौशन को नए कपड़े पहनाओ| हमरा वंश बढ़ाने वाला वही तो है| '
सास की बात से कमला की तन्द्रा टूटी|
वह उस हरकत को महसूस कर रही थी जो अचानक होश आ जाने पर उसने महसूस किया था|
''हुँह,काहे का वंश...'घृणा से मु़ब बनाती कमला रौशन के पास चली गई|
ऋता शेखर 'मधु'

शुक्रवार, 25 नवंबर 2016

वक्त की झुर्रियाँ-लघुकथा



वक्त की झुर्रियाँ

आज फेसबुक पर सर्फिंग करते हुए अरुण बाबू अचानक लालिमा जी की प्रोफाइल पर पहुँच गए| उसने प्रोफाइल पर वही पिक लगा के रखा था जो चालीस साल पहले कॉलेज के पहचान पत्र पर था इसलिए नजर पड़ते ही अरुण बाबू पहचान गए| जल्दी जल्दी पूरी प्रोफाइल खंगाल डाले पर सिर्फ वही तस्वीर देख पाए| शायद प्राइवेसी सेटिंग थी या फिर वह कोई पोस्ट नहीं डालती थी|

अरुण बाबू ने मेसेज में लिखा,’ यदि मैं गलत नहीं हूँ तो तुम लालिमा ही हो न| इस तरह अचानक कॉलेज छोड़कर क्यों चली गई थी|” मेसेज भेजकर पुरानी यादों में खो गए जब लालिमा की खूबसूरती दोस्तों के बीच चर्चा का विषय थी| लालिमा मेसेज देखेगी भी या नहीं इसमें संदेह था कि अचानक मेसेज देख लेने का संकेत दिखा| अरुण बाबू उत्तर का इन्तेजार करने लगे|

‘आप कौन’ अचानक मेसेज बॉक्स की लाल बत्ती जल गई|

‘मैं अरुण जिसके नोट्स तुम्हें बहुत पसंद थे’|

कुछ देर बातें होती रहीं| अरुण बाबू ने लालिमा जी को हैंग आउट पर आने को कहा| उनकी कल्पना में वही बाइस साल की लालिमा की तस्वीर घूम रही थी| तभी लालिमा जी टैबलेट पर दिखने लगीं| दोनों दोस्तों ने एक दूसरे को देखा| कुछ देर देखते रहे फिर ठठाकर हँस पड़े|

‘’उम्र के इस पड़ाव पर भी कल्पना पुरानी है मगर झुर्रियाँ भी सुखद हैं’’ अरुण बाबू ने हँसते हुए कहा|

--ऋता शेखर "मधु"

फेसबुक की प्रतिक्रियाएँ

१ वाह, वाह।खूब बढ़िया लिखा आपने।मनभावन कथा।बधाई हो सुन्दर लेखन हेतु।–गीता सिंह

२. Behad sundar ehsaso ki mala Piro di aap nai-कुलविंदर सिंह

३. अत्यंत लुभावनी कथा ,हार्दिक बधाई ऋता शेखर 'मधु' जी-अर्चना त्रिपाठी

४. समय के साथ चेहरा बदल गया लेकिन मन के भाव नहीं, बहुत बढ़िया| बधाई इस सुंदर रचना के लिए-विनय कुमार

५. फेसबुक में झुर्रीदार सुखद मिलन, नये कलेवर में अच्छी रचना। बधाई।रूपेंन्द्र सामंत

६. वाह ख्वाबों की तस्वीर सदा जवांरहती है समय का प्रभाव नही पडता है यादों पर सुन्दर भाव वाली रचना बधाई ऋता जी-जितेंद्र गुप्ता

७. बहुत बढ़िया रचना बनी है चित्र के भाव को देखते हुए, कही भी ऐसा नहीं लगता कि रचना को जबरन लिखा गया हो ....... बधाई स्वीकार करे ऋता शेखर जी—वीरेंद्र वीर मेहता

८. बहुत सुंदर अंत के साथ एक बढ़िया कथा-जानकी वाही

९. अक्सर पुराना कोई दोस्त मिलता है तो ज़ेहन में उसका वही बरसों पुराना रूप समाया रहता है, अरसे बाद मिले मित्र में आये परिवर्तन खुद को भी उम्रदराज़ होने का अहसास करा जातें ,, बेहद सुन्दर रचना चित्र पर,----महिमा वर्मा

बुधवार, 23 नवंबर 2016

अंतर्देशीय



अंतर्देशीय--

इमेल, एसएमएस, व्हाट्स एप के जमाने में ऑफिस के लिफाफों के ढेर में एक अन्तर्देशीय देखकर अविनाश चौंक गया| लिखने वाले ने अन्तर्देशीय के पीछे अपना नाम नहीं लिखा था| उत्सुकता से अविनाश ने सबसे पहले वही खोला|

''सॉरी भइया, तुमसे बात करने का कोई रास्ता नहीं था| इसलिए यह खत लिखा|
याद है बचपन में हम कितना लड़ा करते थे| मैं ही ज्यादा बदमाश थी और तुम हमेशा चुप लगाकर झगड़ा शात कर देते थे| तुम्हें याद है न, होमवर्क नहीं करने पर मैं स्कूल न जाने के कई बहाने ढूँढती थी और तुम चुपके से मेरा होमवर्क पूरा कर दिया करते थे| भाई, तुम्हें याद है एक बार कॉलेज से जाने वाले एजुकेश्नल ट्रिप पर जाने देने के लिए पापा राजी नहीं थे तब तुमने ही तो मेरी सिफारिश की थी और पापा तैयार हो गए थे| एक बार एक प्रोजेक्ट बनाने के लिए सैंड कलर नहीं मिल रहा था तो तुमने कई दुकानों के चक्कर लगाए थे और लाकर दिए थे|
माना कि तुम्हें बहुत आगे तक जाने की महत्वाकांक्षा थी| एम बी बी एस के बाद आगे की पढ़ाई विदेश में पढ़ना चाहते थे तुम| इसके लिए तुमने भाभी के पापा के दबाव में आकर उनके घर में ही रहना स्वीकार कर लिया| हमें या मम्मी पापा को इससे कोई एतराज नहीं था लेकिन तुम धीरे धीरे हमसे दूर होते चले गए| मैं चाह कर भी तुमसे बात नहीं कर पा रही थी| मुझे मालूम था कि तुम्हारे फोन, मेल सब कुछ भाभी देखती हैं इसलिए कोई बात न बढ़ जाए मैंने भी दूरी बना ली थी|
भइया, मेरे इंगेजमेंट में भी तुम मेहमान बन कर आए और चले गए| अब मैं भी तो घर से जा रही हूँ| लोग कहते हैं कि बेटियाँ परायी होती हैं| तुम तो बेटा हो न| मम्मी पापा बिल्कुल टूट जाएँगे भाई|
भइया, दूसरे घर जाने से पहले मैं तुम्हें अपने हाथों से वो सभी राखियाँ बाँधना चाहती हूँ जिसे हर रक्षाबंधन पर मैंने खरीदे पर तुम्हारे पास जाने की हिम्मत न कर सकी| मुझे एक दिन के लिए मेरा भाई लौटा दो भइया| फिर आगे कुछ नहीं माँगूँगी | भइया प्लीज़, आशा है बचपन की प्यारी बहन का मान रख लोगे|
अनु
आँखें पोंछते हुए अविनाश टेबल पर पड़े सभी कागजों को समेट उठ गया|
''सर, आज की डील फाइनल नहीं हुई तो देर हो जाएगी| "
'' अगर आज नहीं गया तो मेरी बहन खो जाएगी'', कहता हुआ अविनाश बाहर निकल गया|
--ऋता शेखर 'मधु'

रविवार, 20 नवंबर 2016

मूक बनोगे आज जब, हो जाएगी चूक

दो पहलू हर बात के, सहमति और विरोध
कह दो मन के भाव को,नहीं कहीं अवरोध


मूक बनोगे आज जब, हो जाएगी चूक
होंगे कल के बोल तब, वीराने की कूक


चुप रहने से जिंदगी, बदले अपनी चाल
क्यों पूछे उस वक्त में, कोई तुम्हारा हाल


नित नित लिखते मित्र जो, बनते थे चर्वाक
चुप रहकर के वो बने, बड़े चतुर चालाक


रुक जाए जो लेखनी, कौन बने आवाज
खंगालो इतिहास को, कवि बदलो अंदाज


--ऋता शेखर 'मधु'

मंगलवार, 15 नवंबर 2016

हैप्पी बर्थडे - लघुकथा

हैप्पी बर्थडे
‘आज माँ को क्या हो गया है’, पत्नी शिप्रा ने आते ही अभिनव से कहा|
“क्या किया माँ ने”, अभिनव सोचते हुए बोला|
“माँ ने मिठाई मँगवाई है और सजधज कर बैठी हैं|”
“देखता हूँ,” कहकर अभिनव माँ के कमरे की ओर गया|
अन्दर से कुछ आवाज आ रही थी| अभिनव बाहर ही रुककर सुनने लगा|
“अभिनव के पापा, याद है न वह गाना जो तुम अक्सर गाया करते थे....
मैं जब हूँगा साठ साल का और तुम होगी पचपन की...
...बोलो प्रीत निभाओगी न|
देखो जी, आज मैं पचपन की हो गई मगर तुम साठ के न हो सके|
मुझे देखो, बुढ़ापा चेहरे पर आने लगा है किन्तु तुम तो अब भी युवा दिखते हो|
तुम्हें साठ की देखने की मेरी ख्वाहिश पूरी न हो सकी|...अच्छा छोड़ो ये बातें, मिठाई खाओ|’’
इसके बाद माँ के हँसने की आवाज आई|
मात्र पाँच साल की उम्र में अपने पिता को खो चुका अभिनव कमरे में घुसकर
अपने पिता की उसी युवा तस्वीर देखते हुए आँखें पोंछ रहा था जिससे  माँ बातें कर रही थी|
‘हैप्पी बर्थडे माँ’’, कहते हुए उसने माँ के प्लेट से मिठाई उठाकर खा ली|
ऋता शेखर ‘मधु’

गुरुवार, 10 नवंबर 2016

भली लगे सबके कानों को, बोलो ऐसी बोली

११
जीवन जीने के कौशल में, होती कई परीक्षा
वो ही अव्वल आ पाते जो, पाते नैतिक शिक्षा
१२.
सावन भादो के मौसम में, करता है खुदगर्जी
बादल को अब आने भी दे, नभ को भेजो अर्जी
१३.
बासंती मौसम में आईं, कलियाँ नई नवेली
मनभावन खुश्बू से देखो, सबकी बनीं सहेली
१४.
भली लगे सबके कानों को, बोलो ऐसी बोली
कूक कूक कर अमराई में, कोयल शरबत घोली
१५.
मन माटी की हर क्यारी में, बीज प्रेम के बोना
सद्भावों से महक उठेगा, घर का कोना कोना
१६.
देशप्रेम की स्वच्छ सोच में, कैसी नफरत जागी
जात धर्म की उग्र हवा में, फूल हुए हैं बागी
१७.
स्वस्थ बीज अच्छी सिंचन से, आती है हरियाली
गेहूँ की बाली के संग संग, आएगी खुशहाली
१८.
इंद्रधनुष के सप्तवर्ण में, हमें तीन है प्यारा
प्रगतिशील झंडे में सजकर, चक्र लगे है न्यारा
१९.
निर्निमेष व्याकुल अँखियों से, ताक रहा है चातक
मिलती ना बूँदें स्वाती की, प्यास बनी है घातक
२०.
नई राह पर नए कदम की, दुनिया है अनजानी
मायावी बातों में आकर, ना करना नादानी
२१.
पवन मेघ अरु धूप रूप में, आया है वनमाली
उसकी अगवानी करने को, झुकी फूल की डाली
२२.
अथक परिश्रम अटल आस से, दूर करो हर बाधा
खुशियों से खुशियाँ मिलती हैं, गम होता है आधा
२३.
कंकड़ पाथर के ऊपर से, निर्मल सरि सा बहना
सदा पहन कर सुन्दर दिखना, निश्छलता का गहना
२४.

ताकधिना धिन ताकधिना धिन, जमकर बरसा सावन
पुलकित बूँदों के नर्तन से, पात बने हैं पावन
२५.
रातों को जल्दी सो जाओ, सुबह सवेरे जागो
लाख टके की हवा मिलेगी, प्रातभ्रमण को भागो
२६.
बड़े दिनों पर पोते के घर, दादी अम्मा आई
बालक मन के गुलमोहर पर, डोली है पुरवाई
२७.
अरुणाचल की लाली में अब, जागी है अरुणाई
कोयल कूकी, बैल चले हैं, फैल रही तरुणाई
२८.
लम्बे चौड़े वादे मुकरे , उम्मीदें हैं भूखी
जबसे उनको वोट मिला है, बातें करते रूखी
२९.
मँहगाई के डंडे से वे, छीन रहे हैं रोटी
जाने किस किस हथकंडे से, जेब हुई है मोटी
३०.
हहराती बलखाती गंगा, धरती पर मुड़ जाती
फसलों की जड़ तक वह जाए, ऐसी जुगत लगाती
३१.
इस नश्वर दुनिया में मानव, जोड़ के रखो कड़ियाँ
जाने कब कौन कहाँ छूटे, बोल रही हैं घड़ियाँ
३२.
धरती की बढ़ती गरमी से, घबराती है बरखा
सत्य अहिंसा के दामन से, किसने छीना चरखा

---------ऋता शेखर मधु

शनिवार, 5 नवंबर 2016

प्रतिकार-लघुकथा

प्रतिकार
चिता पर पत्नी के शव के अंतिम संस्कार के लिए शिवशंकर बाबू के हाथों में अग्नि थमाई जा चुकी थी| अचानक तेज आँधी आई| बगल की चिता से चिंगारी उड़ी और शिवशंकर बाबू की पत्नी की चिता से जा लगी| धू धू कर जलने लगी चिता और अग्नि को हाथ में पकड़े पति को दग्ध करने लगी|
 “आज उस मौन बर्फ ने आपकी अग्नि को नकार दिया जीजा| जो काम वह जीते जी नहीं कर सकी, मरकर कर दिया उसने,” रोष फूट पड़ा भाई संजीव का|
 अवाक् खड़ी अपनों की भीड़ की ओर मुखातिब होकर संजीव कहने लगा, “ तीन बेटियों के लिए जीजा और उनके घरवालों से प्रताड़ित होती रही थी हमारी बहन| बाद में बेटे की चाह में अबॉर्शन पर अबॉर्शन ने उसके शरीर को खोखला कर दिया| क्षीण कमजोर शरीर पर लकवा का प्रकोप हुआ| उसकी शिथिल आँखें भाई को देखते ही बह जाने को आतुर दिखती थी| हम चाह कर भी कुछ न कर सके क्योंकि वह रोक देती थी हमें| ”
 संजीव ने अपनी बात जारी रखी, “ उसकी तीनों बेटियों को खरोंच भी आई तो देख लेना आप| संस्कारों का हवाला देकर हमें रोकने वाली बहन जा चुकी है| ”
 “उफ्फ, सज्जन दिखने वाले इस इंसान की इतनी क्रूर मानसिकता कि प्रकृति भी मरने वाली के मौन चीत्कार को अनदेखा न कर सकी,”भीड़ में से आई आवाज ने एकबारगी सबको दहला दिया|

--ऋता शेखर ‘मधु’