बुधवार, 27 अप्रैल 2016

गर उद्गार जीवित हो जाएँ

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खुशियों की ऊँचाई से
व्यथा की गहराई तक
अमराई की खुशबू से
यादों की तन्हाई तक
जाने कितनी नज्म कहानी
सिमट जाती हैं पुस्तक में

जितने लोग उतने दर्द
जितने लम्हे उतने क्षोभ
कुछ व्यक्त कुछ रहे अव्यक्त
अथाह मन की अनगिन सोच
बल खाती हैं पुस्तक में

भोर की रश्मियाँ सुनहरी
रुपहली चाँदनी घोर निशा की
तपती दुपहरी की धूप छाँव
गोधूलि की साँझ सिंदूरी
बिखर जाती हैं पुस्तक में

ज्ञान ध्यान की प्रेरक बातें
भुखे पेट की बोझिल रातें
प्रेम शाश्वत प्रेम सत्य है
एहसासों की मीठी मुलाकातें
अल्फाजों का रूप धरे
सज जाती हैं पुस्तक में

कुछ अतीत से सबक सिखाए
कुछ कसक दिल की कह जाए
जीवन के कुछ अद्भुत पल भी
पन्नों पर रोशनाई गिराए
मौन रही घुटती हुई साँसें
मुखरित होती हैं पुस्तक में

अमलतास जूही पुरवाई
चौबारा लीपे जो माई
लेखनी सब कुछ ही कहती
पगडंडी पर्वत और खाई
पीर घनेरी आहत मन की
मसक जाती है पुस्तक में

नन्हें होठों की किलकारी
बारिश बूँदों के बुलबुले
प्रेम पत्र के उड़ते पन्ने
बीबियों के प्यारे चुटकुले
जाने कितनी चाँदनी रातें
थिरक जाती हैं पुस्तक में

गर उद्गार जीवित हो जाएँ
फिर कहाँ कुछ बयाँ होगा
कोलाहल की बस्ती में फिर
बाकी न कोई निशाँ होगा
तूफानों से डरती अभिव्यक्ति
लिपट जाती है पुस्तक में
*ऋता शेखर ‘मधु’*

सोमवार, 25 अप्रैल 2016

गीतिका


आधार छंद रोला में गीतिका

नव पीढ़ी को आज, चमक का शौक लुभाता
गिरा शाख से पात, कहो फिर क्या जुड़ पाता

कड़वाहट के बोल, कभी मत बोलो प्यारे
जग लेता वह जीत, विनय से जो झुक जाता

जीवन है इक राह, कदम मत रुकने देना
मन के जीते जीत, हृदय भी यह समझाता

नदी गई है सूख, पनप जाते हैं पौधे
ढूँढे मिले न नीर, कलश रीता रह जाता

हम से ही है रीत, जमाना भी हमसे है
बनता वह अनमोल, जो दया धर्म निभाता

_ऋता शेखर ‘मधु’

शनिवार, 23 अप्रैल 2016

सुप्रभाती दोहे - 1











समभाव से बाँट रहा, सूरज सबको धूप|
ऊर्जापोषित हम मनुज, खोलें मन का कूप||१०

स्वर्ण रथ पर सूर्य पथिक, आया मेरे देश|
मंजर उत्साहित हुए, मुदित बने परिवेश||९

एक गेंद लुढ़का दिया, रवि ने भोरम भोर|
उसके पीछे चल दिए, मनु पंछी अरु ढोर||८

सूरज का रस्ता कभी, ना होता है जाम|
रुकावटों का सिलसिला, मानव में है आम||7

सिन्दूरी आँचल धरे, उषा हुई अहिवात|
जग है उसका मायका, नभ धरती पितु मात ||6

बैजंती परिजात को , नहलाती है धूप|
श्रृंगारित शिव कृष्ण का, निखरा स्वर्गिक रूप||५

खिल रही अपराजिता, खिल रहे हैं गुलाब|
रथ पर रखे स्वर्ण कलश, सूरज बना नवाब||४

उगती जाती  रौशनी, नित प्राची की ओर|
तम पर पा लेती विजय, बिना मचाए शोर||३

सुबह सुनहरी रश्मियाँ, बनी चंद्रिका रात|
छुप कर रहती धूप में, शीतलता की बात||२

आया है परदेस से, सूरज अपने देश|
पश्चिम को भेजो जरा, गरिमा का संदेश||१
ऋता शेखर 'मधु'

मंगलवार, 19 अप्रैल 2016

जल है तो कल है

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जल है तो कल है
1.
तरसे हैं इक बूँद को, महानगर के प्रांत
सूखी धरती चीखती, नदिया पड़ी है शांत
नदिया पड़ी है शांत, विकल हैं पौधे सारे
सिसके प्यासे कंठ, वृद्ध बालक भिनसारे
गगन रहा है ताक, मेघ बिन कैसे बरसे
हरियाली से हीन, मनुज पानी को तरसे
2.
मोटर को देते चला, फिर जाते हैं भूल
व्यर्थ बहे जल धार बन, हो जाता निर्मूल
हो जाता निर्मूल, कहीं पड़ता है सूखा
बाँझ बने हैं खेत, कृषक रह जाता भूखा
हम से ही है देश, हमीं हैं सच्चे वोटर
जाया ना हों नीर, चलाएँ ऐसे मोटर
3.
भइया जी ने आज से ,दिया नहाना छोड़
लम्बी कतार में मची, पानी पाने की होड़
पानी पाने की होड़, लड़ाई की जड़ होती
बलवानों की जीत, यहाँ अपनापन खोती
फेल हुई सरकार, हिली है उसकी नइया
मिल पाए ना नीर, नहा पाए ना भइया
4.
रूठे हैं बादल यहाँ, बरस न पाए नीर
धरती तप्त तवा बनी, कहें दरारें पीर
कहें दरारें पीर, नमी को किस विधि खींचे
सुप्त पड़ा है कोख, बीज फिर कैसे सींचे
इतना रखना याद, पेट भरते ना जूठे
बहुतायत हो पेड़, रहें ना बादल रूठे
-ऋता शेखर 'मधु'

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2016

दोहा पर दोहे

दोहा.....
१.
दोहे दोहे में छुपा, अद्भुत जीवन सार
छंद विधा ने रच दिया, लघुता में संसार
२.
तेरह ग्यारह ने गहे, भावों का विस्तार
कथनी जब पैनी हुई, हुई हृदय के पार
३.
दोहा छोटे छंद में, बात कहे गंभीर
कभी लगे वह नीक है, कभी चलावे तीर
४.
अच्छे दोहे संत हैं, देते सच्ची राह
व्यवहार में उतार लें, छूटे नफरत डाह
५.
पर उपकारी भाव में, दोहे कहें कबीर
जो सीखे वो सीख ले, दया धर्म अरु धीर
*ऋता*

रविवार, 3 अप्रैल 2016

रोटी


१.
श्रम में लगे थे हाथ, भूख लगी हुए साथ, रोटियों को मिल बाँट, संग संग खा रहे|
जो चतुर चालाक हैं, इरादों से ना पाक हैं, टुकड़ों को चुपचाप, तली में छुपा रहे|
तन मन की थकन, क्षुधा की बढी़ अगन, लालच की आहुति में, सबको जला रहे|
सद्भावना खिली रही, भावना बहती रही, मिट गए भाव छली, प्रेम गीत गा रहे|
*ऋता शेखर 'मधु'*
२.
वक्त की सिलवटों पे जाने कितने हैं पैगाम लिखे
उड़ते हुए परिंदों ने हौसले सुबहो-शाम लिखे
दौर मुफ़लिसी का भी गुजर जाएगा लहरों की तरह
बाद शब के रौशनी ने ऐसे ही कई मुकाम लिखे
*ऋता शेखर 'मधु'*
३.
इस अलाव की गर्मी से जुड़ती कितनी ही यादें
पगडंडी से दालानों में जा मुड़तीं कितनी ही यादें
सर्द शाम में चटका करतीं हरी मिर्च संग मूँगफली
रोटी की सोंधी खुश्बू से उड़ती कितनी ही यादें
-ऋता शेखर 'मधु'
४.
जीवन के इस हँसी सफर में कब कौन कहाँ पे सँवारा गया

प्रेम पंथ के कठिन डगर पर कब कौन किसी से पुकारा गया

रब की बातें रब ही तो जानें कब क्यों वह कुछ कर जाते हैं

उस दीन बंधु का सबल साथ कभी ना किसी से नकारा गया
५.


दोस्ती वो शय है जहाँ फूलों की महक रहती है

दोस्ती तो चाँद है जहाँ आशा की चमक रहती है
दिलोजा़ँ औ इमाँ से दोस्ताना निभा लेना ऐ दोस्तों
दोस्ती अनमोल है जहाँ बिकने की चहक रहती है

६.
नफ़रतों को छोड़ दो
दो दिलों को जोड़ दो
हौसला गर रख सको
आँधियों को मोड़ दो
७.
काग़ज़ की कश्ती में बादशाहत का ताज था
बचपन की हस्ती में मुस्कुराहट का नाज था
शनै शनै ये ताजो' नाज छूटते चले गए,
अब वक्त की रवानगी में अनुभव का राज था
*ऋता शेखर 'मधु'*