सोमवार, 31 दिसंबर 2012

२०१२ की पॉपुलर पोस्ट (दोहा छंद)

वर्ष 2012 का आज अन्तिम दिन...मौजूदा वारदात पर मन द्रवित है...फिर भी समय अपनी गति नहीं छोड़ता ...2013 को नियम के अनुसार आना है...आने वाले वर्ष में हालात सुधरें,  इसी आशा के साथ नए वर्ष की शुरुआत करनी है...सभी को नव वर्ष की मंगलकामनाएँ !!


 ब्लॉगर के अनुसार २०१२ की जो सबसे पॉपुलर पोस्ट रही वह फिर से प्रकाशित कर रही हूँ|


बूँद-बूँद तरसे धरा, ताक रही आकाश|
मेघ, अब आओ जरा, मिलने की है आस|१|

मतवाले बादल चले, घोड़े-सी है चाल|
हौले मस्त हवा चली, झूमें तरु के डाल|२|

घटा घनघोर छा रही, नाच रहा है मोर|
चपल दामिनी हँस पड़ी, बादल करता शोर|३|

घन-घन करके गरज रहा, इन्द्रदेव का दूत|
माँ के आँचल जा छुपा, उसका डरा सपूत|४|

प्रचण्ड-वेग समीर बहे, झुकते ताड़-खजूर|
धूल-भरी हैं आँधियाँ, उड़ें फूस-छत दूर|५|

बादलों से गगन ढका, है बारिश की थाप|
भोर निशा-सी लग रही, सूरज सोया चुपचाप|६|

खुशबू सोंधी उड़ रही, टप टप बरसा नीर

तन मन पुलकित हो गए, चलो ताल के तीर|७|


बारिश की धारा बही, छप-छप करते पाँव|
कतारों में हैं सजते, कागज के सब नाव|८|

मुसलाधार बारिश में, सजा राग मल्हार|
पकौड़ियाँ छनने लगीं, छाई हँसी-बहार|९|

नदी- ताल- पोखर भरे, बारिशों का कमाल|
टर-टर से गूँजा शहर, मेढकों का धमाल|१०|

बूदें नभ में जा टँगीं, हो रहा परावर्तन|
इन्द्रधनुष के सात रंग, करने लगे नर्तन|११|

मेंहदी हाथों में रची, मुखड़ा होता लाल|
मंद- मधुर मुस्कान से, सखियाँ करें सवाल|१२|

ऋता शेखर मधु

शनिवार, 29 दिसंबर 2012

कलम का प्रोटेस्ट




नींद में ही
इक आवाज सुनी
वह चली गई
मन स्तब्ध
आँखें नम
हृदय की धड़कन
रुकी-रुकी सी
मन की शक्ति
चुकी-चुकी सी
कलम उठाया
कि लिख दूँ
उसकी आत्मा की शांति के लिए
दो शब्द
पर यह क्या?
कलम ने
चलने से इंकार किया
क्यूँ.....?
कलम ने कहा-
नहीं लिख सकोगी
मेरी भी जिद थी-
लिख लूँगी
-तो फिर लिखो
मैंने उढ़ेल दी
सारी संवेदनाएँ
पर उभरा
एक ही निशान
प्रश्नचिन्ह का
?????
?????
मैं अवाक्
कलम ने कहा-
पहले आँख मूँदो
महसूस करो उसे
उसके घरवालों को
दो मिनट का मौन रखो
फिर लिखना...
कलम का प्रोटेस्ट
सर झुकाकर
मान लिया मैंने|

ऋता शेखर मधु

बुधवार, 26 दिसंबर 2012

शीत सुहानी



सेदोकाशीत सुहानी- ऋता शेखर मधु
१.
शीत सुहानी
जुड़ी प्रीत-रुहानी
कमल पुष्प खिले
श्वेत बालों में
वर्षा वृद्ध हो गई
कहती है कहानी|
२.
नील धवल
स्फटिक-सा आकाश
कुमुदिनी से भरे
ताल-तडाग
नाच उठी चाँदनी
करे अमृत-वर्षा|
३.
शरद-नायिका
मस्त राजहंसी-सी
नव-वधू सी शोभा
झंकृत हुए
उर-वीणा के तार
लगा कास-अंबार|
४.
मन मोहती
पकी धान-बालियाँ
आकुल बन गए
कास-जवास
ढक गई धरती
शुभ्र-श्वेत पुष्पों से|
५.
शरद पूनो
शीत चन्द्र-हिरण
बरसाए किरण
चावल खीर
बन जाता सात्विक
आरोग्य औआत्मिक|

ऋता शेखर 'मधु'

मंगलवार, 25 दिसंबर 2012

मेरी क्रिसमस---दुआएँ ले लो हमारी



आज मुझसे किसी ने कहा कि वह अपनी बर्थडे विश मेरे ब्लॉग पर ही स्वीकार करेंगी...मैं उनके लिए कुछ लिखूँ...तो मंजु जी आपकी इच्छा शिरोधार्य है...
सबसे अच्छी बात है कि आज क्रिसमस भी है...सबको क्रिसमस की बधाइयाँ और हार्दिक शुभकामनाएँ !!
 

मंजुल मधुर स्मित आपकी
स्नेहमयी है वाणी
कर्तव्य संस्कार या सुर हो
बन जाती हैं अग्रणी
चंद्रमा की चाँदनी हैं
सब कहें अमृत-तरंगिणी
घर विद्यालय सभी जगह
थामतीं अवक्षेपणी
सूर्य-समान उज्जवल ऊर्जा
चमकें ज्यूँ आदित्य-पर्णी
दक्ष सुघढ़ गृहिणी हैं आप
हैं सरल मृदुभाषिणी

गीत खुशियों की आप गुनगुनाती रहें
हर कदम पर सदा मुस्कुराती रहें
आशियाने में कहकहे रहें आबाद सदा
लम्हा-लम्हा रौशनी झिलमिलाती रहे
हो मुबारक बहुत जनमदिन आपको
केक काटें और सबको खिलाती रहें|
HAPPY B’DAY MANJU JI:)
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ऋता शेखर 'मधु'

शनिवार, 22 दिसंबर 2012

मेरी न्यायपालिका




जीवन के कुरुक्षेत्र में
दुविधा के क्षणों में
जब पार्थ बन जाती हूँ
कोई भी होता नहीं
ज्ञान कोई देता नहीं
कृष्ण कोई बनता नहीं
तब अपने मानस पटल पर
अपनी गीता खुद लिखती हूँ|

जब लम्हे विरोधी बन जाते
विशाल सागर में
लहरों पर डूबती उतराती
मरुस्थल की गर्म रेत पर चलती
क्रोध इर्ष्या खुशी गम
मस्तिष्क की परतों पर सोई
सभी संवेदनाओं को महसूसती
आज्ञाकारिणी बनी
किसी का सहारा
किसी का संबल बनती
खुद के लिए वनवास चुनती
अपनी रामायण रचती हूँ|

कभी निर्दोष होकर भी
कठघरे में अपराथी बनी
अपने ही तर्क-वितर्क से
अपनी वकील बनी
अंतरात्मा को जज बनाती हूँ
और उसके किए हर फैसले को
दिल से स्वीकार करती
अपनी न्यायपालिका
खुद बनती हूँ|

ऋता शेखर मधु

बुधवार, 19 दिसंबर 2012

हम भी निहाल हो जाएँ



आज गगन से उतरी
शरद की धूप सुनहरी
कुदक फुदक कर भाग रही
जैसे थी कोई गिलहरी
कभी मुंडेर पर चढ़ती
कभी पेड़ों पर छुपती
लुका-छिपी के खेल में
बीत गई थी दुपहरी
ढोल की ढम-ढम लेकर
आई अनाथों की टोली
गूँज उठी थी कायनात में
व्याकुल सी स्वर-लहरी
निर्दोष-से मासूम मुख पर
छाई थी वेदना गहरी
कहाँ फरियाद करें अपनी
नहीं थी कोई कचहरी|

चलो
इक मुठ्ठी धूप चुराकर
उनपर हम बिखराएँ
हँसी के कुछ बीज को
उनके खेतों में बो आएँ
ममता का आँचल फैला
उनके सिर पर लहराएँ
कुछ मिश्री-सी लोरियाँ
गुनगुनाकर उन्हें सुनाएँ
कुछ रिमझिम-सी चाँदनी
उनके सपनों में बरसाएँ
कुछ फूलों की खुश्बू ले
उनकी गलियाँ महकाएँ
खिली-खिली मुस्कान पर फिर
हम भी निहाल हो जाएँ|
ऋता शेखर मधु

रविवार, 16 दिसंबर 2012

कैथी लिपि के जनक


कैथी लिपि- ऋता शेखर मधु


कैथी  या "Kayasthi" लिपि का जनक ,भारत के एक सामाजिक समूह कायस्थों को माना जाता है|  कहा जाता है कि ऐतिहासिक उत्तर भारत के कुछ हिस्सों में से पूर्व उत्तर - पश्चिमी प्रांत, अवध और बिहार में इस लिपि का प्रयोग व्यापक एवं मुख्य रूप से किया जाता था| इस स्क्रिप्ट का इस्तेमाल सामान्य पत्राचार, शाही अदालतों और संबंधित निकायों की कार्यवाही , राजस्व लेनदेन, कानूनी, प्रशासनिक और निजी दस्तावेजों के रिकॉर्ड को लिखने एवं उसे बनाए रखने के लिए किया गया था.
सोलहवीं शतावदी के दस्तावेजों से साफ पता चलता है कि मुगल काल के दौरान इस लिपि का व्यापक इस्तेमाल किया गया था|
1880 के दशक में, ब्रिटिश राज के दौरान, बिहार के कानूनी अदालतों में कैथी स्क्रिप्ट को आधिकारिक तौर पर सरकारी मान्यता दी गई थी| आगे चल कर देव-नागरी लिपि का व्यापक इस्तेमाल होने के कारण यह धीरे-धीरे विलुप्त हो गया|

विकिपीडिया से साभार

यह लिपि लिखना मैं जानती हूँ...बचपन में अपनी नानी और दादी को लिखते देखती थी तो सीख लिया था|

ऋता शेखर 'मधु'



शुक्रवार, 14 दिसंबर 2012

मेरा सहयात्री - ऋता



मेरा सहयात्री
करता है
बहुत प्यार मुझसे
मुँह अन्धेरे ही
भेजता संदेसा
खुद के आने का
आते ही उसके
गूँज उठती है
खगों की चहचह
सुरभित होते
पुष्पों की महमह
पाते ही संदेश
नींद उड़ जाती मेरी
चल पड़ती मैं
उसके पीछे-पीछे
वह लगा रहता
हर सेकेंड हर मिनट
हर घंटे हर कदम
मेरे पास- पास
साथ उसके चलने से
बनी रहती है ऊर्जा मेरी
कभी-कभी
होती है कोफ़्त
क्यूँ करता है वह
हर वक्त मेरा पीछा
कभी देखती उसे मैं
हँसकर और कभी
आँखें तरेर कर
उसे फ़र्क नहीं पड़ता
वह मुझे घूरता ही रहता
मैं भी कभी देखती
कभी अनदेखी करती
मेरे पीछे
कभी छोटी परछाई
कभी लम्बी परछाई बना
आगे- पीछे डोलता
धीरे-धीरे
वह थकने लगता
मैं भी थक जाती
आता जब विदाई का वक्त
पसर जाता
एक मौन सन्नाटा
पंछी नीड़ में दुबकते
फूल भी
पँखुड़ियाँ लेते हैं समेट
बुझा-बुझा सा वह
बुझी-बुझी सी मैं
मौन नजरों से
ले लेते हैं विदाई
विलीन हो जाता वह
अस्ताचल में, करके वादा
कल फिर आएगा
अरुणाचल से|

इस जुदाई से
मन ही मन मैं
खूब खुश होती
अब वह
नजर नहीं आएगा
उसकी पहरेदारी से दूर
चाँद-तारों से बातें करती
सिमट जाऊँगी मैं
नींद की आगोश में|

ऋता शेखर मधु