मंगलवार, 27 नवंबर 2012

क्या पता, कविताओं में पारिजात खिल जाएँ



पथ के पाहनों का स्वागत तो कीजिए
ठोकरों के डर से चलना न छोड़िए
हाँजी, हाँजी करके आज दिख रहे जो दोस्त
क्या पता, उनके नक़ाब ही उतर जाएँ

उगी हुई नागफनी का स्वागत तो कीजिए
चुभन के डर से न दामन समेटिए
तलवों से निकलेंगे जो लहू की धार
क्या पता, वह मखमली कालीन बन जाएँ

जीवन की हर लहर का स्वागत तो कीजिए
गहराई देखकर के तैरना न छोड़िए
लहरों के साथ कभी डूब भी गए अगर
क्या पता, गहरे पर मोतियाँ ही मिल जाएँ

व्यंग्य-बेधी बेरुखी का स्वागत तो कीजिए
नमी आँखों में सज भी जाए, हँसना न छोड़िए
मन-ज़मीं पर गिरेंगे असंख्य भाव-बीज
क्या पता, कविताओं में पारिजात खिल जाएँ

ऋता शेखर मधु

रविवार, 25 नवंबर 2012

कैक्टस में भी फूल लगे



बड़े प्यार से सजाया
माली ने छोटा सा चमन
नन्हे छोटे पौध लगाए
सींचा उनको करके जतन
आशा भरी थी नैनों में
कभी खिलेगा इनमें बसंत
बगिया होगी रंगीन हसीन
सपने संजोया माली ने

दूर कहीं से उमड़ घुमड़
आया काला काला बादल
तेज तेज आँधी आई
ओला बरसाया बादल
सह न सका इस विपदा को
उजड़ गया माली का चमन

हाहाकार कर उठा ह्रदय
देख क्षत विक्षत बगिया को
टपक पड़े दो बूँद अश्रु
पीड़ा भरे नयनों से
कैसे संभाले उजड़े चमन को
असहाय इन हाथौं से
बिखर गए थे सारे पौधे
कुछ रौंदे कुछ टूटे से

ममता भरे स्पर्श मिले
उठ खड़ा हुआ माली
थके थके कदमों से उसने
रौंदे टूटे पौधे बटोरे
भले ही पौधे टूट चुके थे
फेंका उनको भारी मन से

आहत दिल से उसने
नव अंकुर क्यारी में रोपे
उग आए कुछ पौधे कटीले
फेंका उसे नहीं माली ने
चुभन झेल बचना सीखा
सींचा उनको भी माली ने

दिन बीते मौसम बीते
अँकुर बढ़ते चले गए
पौध से वे वृक्ष बने
देख देख हर्षाया माली
कैक्टस में भी फूल लगे
बगिया में खिल गया बसंत|

ऋता शेखर मधु

गुरुवार, 22 नवंबर 2012

लयबद्ध कविता लिखना हुआ आसान



आजकल हिन्दी में दोनों तरह की कविताएँ लोकप्रिय हैं| लयबद्ध और बिना लय वाली|  लय वाले काव्य की अपनी खूबसूरती होती है| कभी- कभी हम चाह कर भी लयबद्ध कविताओं की रचना नहीं कर पाते क्योंकि राइमिंग शब्द नहीं मिल पाते हैं| अभी हाल में ही मेरे बेटे शिशिर शेखर ने एक कविता लिखी थी-ये तुम कौन(यहाँ क्लिक करें)- जिसे मैंने पोस्ट पर लगाया था और आपकी सराहना भी मिली थी|
वह ज्यादातर अंग्रेजी पोयम ही लिखता है|
हिन्दी में वह उसका प्रथम प्रयास था| राइमिंग कविताएँ उसे ज्यादा पसन्द हैं|
यह तो सर्वविदित है कि आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है| उस वक्त उसे राइमिंग शब्दों की कमी महसूस हुई और राइमिंग शब्दों को पाने के लिए उसने नया वेबसाइट बनाया है| अंग्रेजी में राइमिंग शब्द देने वाले कई साइट हैं| हिन्दी में सम्भवतः यह प्रथम साइट होगा जो अर्थ के साथ राइमिंग शब्द देगा| यहाँ पर एक लाख दस हजार के लगभग शब्द हैं|  कुछ कमियाँ भी होंगी जो आपके सुझाव पर दूर होती चली जाएँगी| साहित्य को टेक्नोलॉजी का साथ मिला है|
आपसे आग्रह है ,साइट को अवश्य देखें| कुछ पूछना चाहें तो यहाँ के कमेन्ट बॉक्स में पूछें अथवा साइट पर ही पूछें| जहाँ तक हो सकेगा हम आपकी शंकाओं का समाधान करेंगे| आज  इसे लोकार्पित करते हुए मुझे बहुत हर्ष हो रहा है|
यह रहा उस वेबसाइट का लिंक---http://shabdvyuh.com/

यहाँ शुरु वाले, बीच वाले और अन्त वाले...तीनों तरह के राइमिंग मिलेंगे
कुछ पैटर्न साइट पर हैं
उदाहरण के रूप में नीचे कुछ पैटर्न दे रही हूँ...कॉपी पेस्ट करके देख लीजिए
सार*
सा*न
?ज?


ऋता शेखर 'मधु'

मंगलवार, 20 नवंबर 2012

भर गई झोपड़ी

एक बार इस लिंक पर अवश्य जाएँ...लिखना तभी सफल होता है जब उसे अच्छे और सुधि पाठक पढ़ें...आपका सहयोग हमें उत्साहित करेगा..धन्यवाद एवं आभार!!
http://www.infibeam.com/Books/shabdon-ke-aranya-mein-editor-rashmi-prabha/9789381394137.html

शब्दों के अरण्य में कुलाँचे भरती कविताएँ-एक झलक(यहाँ क्लिक करें)

 
भर गई झोपड़ी
गुरुकुल में सभी शिष्यों का अन्तिम दिन था| सभी उदास भी थे और खुश भी| उदास इसलिए कि सभी सखा बिछुड़ रहे थे और खुश इसलिए कि वे अपने घर...अपने परिवारजनों के पास लौट रहे थे| जब विदाई का वक्त आया तो सभी शिष्य गुरु जी के पास उनका आशीर्वाद लेने पहुँचे| गुरु जी ने प्रेमपूर्वक आशीर्वाद दिया | उन्होंने कहा कि तुम सभी हर क्षेत्र में तरक्की करो| 
अन्तिम परीक्षा के रूप में गुरु जी ने सभी शिष्यों को को एक-एक रुपया दिया और कहा कि सभी इस रुपया से ऐसी वस्तु खरीदकर लाओ जिससे मेरी पूरी झोपड़ी भर जाए| सभी शिष्यों ने रुपया ले लिया और सोचने लगे कि ऐसी कौन सी वस्तु हो सकती है| एक घंटे बाद सबको एकत्रित होना था|
     एक घंटे बाद सभी शिष्य आ गए|गुरु जी ने कहा कि सब अपनी-अपनी वस्तुएँ दिखाएँ|
एक शिष्य एक बोरी फरही(मूढ़ी) लेकर आया था किन्तु उससे झोपड़ी का एक कोना ही भर सका| एक शिष्य धुनी हुई रूई लेकर आया फिर भी झोपड़ी खाली रही| इस तरह से सभी ने कुछ-कुछ दिखाया| एक शिष्य चुप खड़ा रहा| गुरुजी ने उससे पूछा कि वह क्या लाया| शिष्य ने आगे बढ़कर एक छोटी सी मोमबत्ती निकाली और उसे जला दिया| प्रकाश से पूरी झोपड़ी  भर गई| गुरु जी ने उठकर शिष्य को गले लगा लिया|
फिर उन्होंने शिष्य से पूछा कि इस प्रकाश को वह किस रूप में देखता है|
शिष्य ने कहा-ज्ञान-प्रकाश के रूप में|
गुरुजी ने गदगद होकर कहा-जाओ वत्स, संसार से अज्ञान का अन्धकार दूर करो, मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है, अच्छा सोचोगे तभी अच्छा करोगे, इससे वैर-भाव दूर होंगे और अच्छे समाज का निर्माण हो सकेगा|
गुरुजी का आशीर्वाद लेकर शिष्य ज्ञान-प्रकाश से जग को आलोकित करने चल पड़ा|

ऋता शेखर मधु                                      

शुक्रवार, 16 नवंबर 2012

आस्था का महापर्व - छठ



कार्तिक महीना त्योहारों का महीना हे| करवा चौथ तथा पंचदिवसीय त्योहार दीपावली मनाने के बाद अब आ रहा हे आस्था का चारदिवसीय महापर्व- छठ पर्व| दीपावली के चौथे दिन से इस पर्व की शुरुआत हो जाती है|
भारत के बिहार प्रदेश का सर्वाधिक प्रचलित एवं पावन पर्व हैसूर्यषष्ठी। यह पर्व मुख्यतः भगवान सूर्य का व्रत है। इस व्रत में सर्वतोभावेन सूर्य की पूजा की जाती है। वैसे तो सूर्य के साथ सप्तमी तिथि की संगति है, किन्तु बिहार के इस व्रत में सूर्य के साथ 'षष्ठी' तिथि का समन्वय विशेष महत्व का है। इस तिथि को सूर्य के साथ ही षष्ठी देवी की भी पूजा होती है। पुराणों के अनुसार प्रकृति देवी के एक प्रधान अंश को 'देवसेना' कहते हैं; जो कि सबसे श्रेष्ठ मातृका मानी गई है। ये लोक के समस्त बालकों की रक्षिका देवी है। प्रकृति का छठा अंश होने के कारण इनका एक नाम "षष्ठी" भी है। षष्ठी देवी का पूजनप्रसार ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार राजा प्रियव्रत के काल से आरम्भ हुआ। जब षष्ठी देवी की पूजा 'छठ मइया' के रूप में प्रचलित हुई। वास्तव में सूर्य को अर्ध्य तथा षष्ठी देवी का पूजन एक ही तिथि को पड़ने के कारण दोनों का समन्वय इस प्रकार हो गया कि सूर्य पूजा और छठ पूजा में भेद करना मुश्किल है। वास्तव में ये दो अलगअलग त्यौहार हैं। सूर्य की षष्ठी को दोनों की ही पूजा होती है।
छठ बिहार का प्रमुख त्यौहार है। छठ का त्यौहार भगवान सूर्य को धरती पर धनधान्य की प्रचूरता के लिए धन्यवाद देने के लिए मनाया जाता है। लोग अपनी विशेष इच्छाओं की पूर्ति के लिए भी इस पर्व को मनाते हैं। पर्व का आयोजन मुख्यतः गंगा के तट पर होता है और कुछ गाँवों में जहाँ पर गंगा नहीं पहुँच पाती है, वहाँ पर महिलाएँ छोटे तालाबों अथवा पोखरों के किनारे ही धूमधाम से इस पर्व को मनाती हैं। यह पर्व वर्षमें दो बार मनाया जाता है । पहली बार चैत्र में और दूसरी बार कार्तिक में । चैत्र शुक्लपक्ष षष्ठी पर मनाए जानेवाले छठ पर्व को चैती छठ व कार्तिक शुक्लपक्ष षष्ठी पर मनाए जानेवाले पर्व को कार्तिकी छठ कहा जाता है । पारिवारिक सुख-स्मृद्धि तथा मनोवांछित फलप्राप्तिके लिए यह पर्व मनाया जाता है । इस पर्वको स्त्री और पुरुष समान रूप से मनाते हैं । छठ व्रतके संबंधमें अनेक कथाएं प्रचलित हैं; उनमें से एक कथाके अनुसार जब पांडव अपना सारा राजपाट जुएमें हार गए, तब द्रौपदीने छठ व्रत रखा । उसकी मनोकामनाएं पूरी हुईं तथा पांडवोंको राजपाट वापस मिल गया । लोकपरंपरा के अनुसार सूर्य देव और छठी मइया का संबंध भाई-बहन का
है । लोक मातृका षष्ठी की पहली पूजा सूर्य ने ही की थी।

नहाय खाय-17.11.2012

पहला दिन कार्तिक शुक्ल चतुर्थी नहाय-खायके रूप में मनाया जाता है। सबसे पहले घर की सफाइ कर उसे पवित्र बना लिया जाता है। इसके पश्चात छठव्रती स्नान कर पवित्र तरीके से बने शुद्ध शाकाहारी भोजन ग्रहण कर व्रत की शुरुआत करते हैं। घर के सभी सदस्य व्रती के भोजनोपरांत ही भोजन ग्रहण करते हैं। भोजन के रूप में कद्दू-दाल और चावल ग्रहण किया जाता है। यह दाल चने की होती है।
लोहंडा या खरना-18.11.2012
चित्र गूगल से साभार)
दूसरे दिन कार्तिक शुक्ल पंचमी को श्रद्धालु शुद्धिकरण के लिए विशेषरूप से गंगा में डुबकी लगाते हैं तथा गंगा का पवित्र जल अर्पण हेतु घर साथ लाते हैं। व्रतधारी दिन भर का उपवास रखने के बाद शाम को चाँद निकलने के उपरांत भोजन करते हैं। इसे खरनाकहा जाता है। खरना का प्रसाद गंगाजल में ही बनाया जाता है|खरना का प्रसाद लेने के लिए आस-पास के सभी लोगों को निमंत्रित किया जाता है। प्रसाद के रूप में कहीं-कहीं गन्ने के रस में बने हुए चावल की खीर के साथ दूध, चावल का पिट्ठा और घी चुपड़ी रोटी बनाई जाती है। कहीं-कहीं बासमती चावल का भात और सेंधा नमक डालकर चनै की दाल बनाई जाती है|। इस दौरान पूरे घर की स्वच्छता का विशेष ध्यान रखा जाता है।

संध्या अर्घ्य-19.112012

तीसरे दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को दिन में छठ का प्रसाद बनाया जाता है। प्रसाद के रूप में शुद्ध घी में बने ठेकुआ के अलावा चावल के लड्डू, जिसे लड़ुआ भी कहा जाता है, बनाते हैं। इसके अलावा चढ़ावा के रूप में लाया गया साँचा और फल भी छठ प्रसाद के रूप में शामिल होता है।
शाम को पूरी तैयारी और व्यवस्था कर बाँस की टोकरी में अर्घ्य का सूप सजाया जाता है और व्रती के साथ परिवार तथा पड़ोस के सारे लोग अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देने घाट की ओर चल पड़ते हैं। सभी छठव्रती एक नियत तालाब या नदी किनारे इकट्ठा होकर सामूहिक रूप से अर्घ्य दान संपन्न करते हैं। सूर्य को जल और दूध का अर्घ्य दिया जाता है तथा छठी मैया की प्रसाद भरे सूप से पूजा की जाती है। इस दौरान कुछ घंटे के लिए मेले का दृश्य बन जाता है। इस व्रत में सभी किसी न किसी रूप में योगदान देना चाहते हैं|

प्रातः या अरुणोदय अर्घ्य-20.11.2012

चौथे दिन कार्तिक शुक्ल सप्तमी की सुबह उदीयमान सूर्य को अर्ध्य दिया जाता है। ब्रती वहीं पुनः इक्ट्ठा होते हैं जहाँ उन्होंने शाम को अर्घ्य दिया था। पुनः पिछले शाम की प्रक्रिया की पुनरावृत्ति होती है। अंत में व्रती कच्चे दूध का शरबत पीकर तथा थोड़ा प्रसाद खाकर व्रत पूर्ण करते हैं।  
व्रत
छठ उत्सव के केंद्र में छठ व्रत है जो एक कठिन तपस्या की तरह है। यह प्रायः महिलाओं द्वारा किया जाता है किंतु कुछ पुरुष भी यह व्रत रखते हैं। व्रत रखने वाली महिला को परवैतिन भी कहा जाता है। चार दिनों के इस व्रत में व्रती को लगातार उपवास करना होता है। भोजन के साथ ही सुखद शैय्या का भी त्याग किया जाता है। पर्व के लिए बनाए गए कमरे में व्रती फर्श पर एक कंबल या चादर के सहारे ही रात बिताई जाती है। इस उत्सव में शामिल होने वाले लोग नए कपड़े पहनते हैं। पर व्रती ऐसे कपड़े पहनते हैं, जिनमें किसी प्रकार की सिलाई नहीं की होती है। महिलाएं साड़ी और पुरुष धोती पहनकर छठ करते हैं। शुरू करने के बाद छठ पर्व को सालोंसाल तब तक करना होता है, जब तक कि अगली पीढ़ी की किसी विवाहित महिला को इसके लिए तैयार न कर लिया जाए।
छठ व्रत स्वच्छता, शुद्धता और आस्था का महापर्व है| यह प्रकृति की पूजा है| इसमें नदी, चन्द्रमा और सूर्य- तीनों की पूजा होती है| छठ पूजा का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष इसकी सादगी पवित्रता और लोकपक्ष है। भक्ति और आध्यात्म से परिपूर्ण इस पर्व के लिए न विशाल पंडालों और भव्य मंदिरों की जरूरत होती है न ऐश्वर्य युक्त मूर्तियों की। यह पर्व बाँस निर्मित सूप, टोकरी, मिट्टी के बरतनों,गन्ने के रस, गुड़, चावल और गेहूँ से निर्मित प्रसाद, और सुमधुर लोकगीतों से युक्त होकर लोक जीवन की भरपूर मिठास का प्रसार करता है।

ऋता शेखर मधु

बुधवार, 14 नवंबर 2012

कायस्थों की उत्पत्ति एवं बारह भाइयों का सम्पूर्ण विवरण



चित्रगुप्त पूजा के अवसर पर मेरी कॉलनी में चित्रगुप्त पूजा समिति की ओर से  स्मारिका के प्रकाशन की बात थी| इंटरनेट पर मेरी गतिविधियों को ध्यान में रखते हुए निम्नलिखित टॉपिक पर आलेख तैयार करने का जिम्मा मुझे दिया गया| इसमें मेरे भाई तथा शिशिर (बेटा) का भी योगदान है|

कायस्थों की उत्पत्ति एवं बारह भाइयों का सम्पूर्ण विवरण--- ऋता शेखर मधु

कायस्थों का स्त्रोत श्री चित्रगुप्तजी महाराज को माना जाता है। कहा जाता है कि ब्रह्माजी ने चार वर्णो को बनाया ( ब्राह्मण , क्षत्रीय , वैश्य , शूद्र ) तब यम जी ने उनसे मानवों का विवरण रखने में सहायता मांगी। फिर ब्रह्माजी ११००० वर्षों के लिये ध्यानसाधना मे लीन हो गये और जब उन्होने आँखे खोली तो देखा कि " आजानुभुज करवाल पुस्तक कर कलम मसिभाजनम" अर्थात एक पुरुष को अपने सामने कलम, दवात, पुस्तक तथा कमर मे तलवार बाँधे पाया । तब ब्रह्मा जी ने कहा कि "हे पुरुष तुम कौन हो, तब वह पुरुष बोला मैं आपके चित्त में गुप्त रूप से निवास कर रहा था, अब आप मेरा नामकरण करें और मेरे लिए जो भी दायित्व हो मुझे सौपें, तब ब्रह्माजी बोले जैसा कि तुम मेरे चित्र (शरीर) मे गुप्त (विलीन) थे इसलिये तुम्हे चित्रगुप्त के नाम से जाना जाएगा। और तुम्हारा कार्य होगा प्रेत्यक प्राणी की काया में गुप्तरूप से निवास करते हुए उनके द्वारा किये गए सत्कर्म और अपकर्म का लेखा रखना और तदानुसार सही न्याय कर उपहार और दंड की व्यवस्था करना। चूंकि तुम प्रत्येक प्राणी की काया में गुप्तरूप से निवास करोगे इसलिये तुम्हे और तुम्हारी संतानो को कायस्थ भी कहा जाएगा ।
"श्री चित्रगुप्त जी को महाशक्तिमान क्षत्रीय के नाम से सम्बोधित किया गया है । इनकी दो शादियाँ हुईं, पहली पत्नी सूर्यदक्षिणा/नंदनी जो ब्राह्मण कन्या थी, इनसे 4 पुत्र हुए जो भानू, विभानू, विश्वभानू और वीर्यभानू कहलाए। दूसरी पत्नी एरावती/शोभावति नागवन्शी क्षत्रिय कन्या थी, इनसे 8 पुत्र हुए जो चारु, चितचारु, मतिभान, सुचारु, चारुण, हिमवान, चित्र, और अतिन्द्रिय कहलाए।                  
1.श्री चारू (माथुर)- वह गुरु मथुरे के शिष्य थे | उनका राशि नाम धुरंधर था और उनका विवाह देवी पंकजाक्षी से हुआ | वह देवी दुर्गा की आराधना करते थे | महाराज चित्रगुप्त जी ने श्री चारू  को मथुरा क्षेत्र में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था| उनके वंशज माथुर नाम से जाने गाये | उन्होंने राक्षसों (जोकि वेद में विश्वास नहीं रखते थे ) को हराकर मथुरा में राज्य स्थापित किया | इसके पश्चात्  उनहोंने आर्यावर्त के अन्य हिस्सों में भी अपने राज्य का विस्तार किया | माथुरों ने मथुरा पर राज्य करने वाले सूर्यवंशी राजाओं जैसे इक्ष्वाकु, रघु, दशरथ और राम के दरबार में भी कई पद ग्रहण किये |   माथुर 3 वर्गों में विभाजित हैं यथा  देहलवी, खचौली एवं गुजरात के कच्छी | उनके बीच 84 अल हैं| कुछ अल इस प्रकार हैं- कटारिया, सहरिया, ककरानिया, दवारिया, दिल्वारिया, तावाकले, राजौरिया, नाग, गलगोटिया, सर्वारिया, रानोरिया  इत्यादि| इटावा के मदनलाल तिवारी द्वारा लिखित मदन कोश के अनुसार माथुरों ने पांड्या राज्य की स्थापना की जो की आज के समय में मदुरै, त्रिनिवेल्ली जैसे क्षेत्रों में फैला था| माथुरों के दूत रोम के ऑगस्टस कैसर के दरबार में भी गए थे |
2.श्री सुचारू (गौड)- वह गुरु वशिष्ठ के शिष्य थे और उनका राशि नाम धर्मदत्त था | वह देवी शाकम्बरी की आराधना करते थे | महाराज चित्रगुप्त जी ने श्री सुचारू को गौड़ क्षेत्र में राज्य स्थापित करने भेजा था | श्री सुचारू का विवाह नागराज वासुकी की पुत्री देवी मंधिया से हुआ | गौड़ 5 वर्गों में विभाजित हैं : 1. खरे 2. दुसरे 3. बंगाली 4. देहलवी  5. वदनयुनि | गौड़ कायस्थ  को 32 अल में बांटा गया है | गौड़ कायस्थों में महाभारत के भगदत्त और कलिंग के रुद्रदत्त प्रसिद्द हैं |
3.श्री चितराक्ष (भटनागर) - वह गुरू भट के शिष्य थे | उनका विवाह देवी भद्रकालिनी से हुआ था | वह देवी जयंती की अराधना करते थे | महाराज चित्रगुप्त जी ने  श्री चित्राक्ष को भट देश और मालवा में भट नदी के तट पर राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था | उन्होंने चित्तौड़ एवं चित्रकूट की स्थापना की और वहीं बस गए | उनके वंशज भटनागर के नाम से जाने गए | भटनागर 84 अल में विभाजित हैं | कुछ अल इस प्रकार हैं- दासनिया, भतनिया, कुचानिया, गुजरिया, बहलिवाल, महिवाल, सम्भाल्वेद, बरसानिया, कन्मौजिया इत्यादि| भटनागर उत्तर भारत में कायस्थों के बीच एक आम उपनाम है |
4 श्री मतिमान (सक्सेना)- माता शोभावती (इरावती) के तेजस्वी पुत्र का विवाह देवी कोकलेश से हुआ | वे देवी शाकम्भरी की पूजा करते थे | चित्रगुप्त जी ने श्री मतिमान को शक् इलाके में राज्य स्थापित करने भेजा | उनके पुत्र एक महान  योद्धा थे और उन्होंने  आधुनिक काल के कान्धार और यूरेशिया भूखंडों पर अपना राज्य स्थापित किया | चूंकि वह शक् थे और शक् साम्राज्य से थे तथा उनकी मित्रता सेन साम्राज्य से थी, तो उनके वंशज शकसेन या सकसेन कहलाये| आधुनिक इरान का एक भाग उनके राज्य का हिस्सा था| आज वे कन्नौज, पीलीभीत, बदायूं, फर्रुखाबाद, इटाह, इटावाह, मैनपुरी, और अलीगढ में पाए जाते
हैं| सक्सेना 'खरे' और 'दूसर' में विभाजित हैं और इस समुदाय में 106 अल हैं |कुछ अल इस प्रकार हैं-
जोहरी, हजेला, अधोलिया, रायजादा, कोदेसिया, कानूनगो, बरतरिया, बिसारिया, प्रधान, कम्थानिया, दरबारी, रावत, सहरिया, दलेला, सोंरेक्षा, कमोजिया, अगोचिया, सिन्हा, मोरिया, इत्यादि

5 श्री हिमवान (अम्बष्ट) - उनका राशि नाम सरंधर था और उनका विवाह देवी भुजंगाक्षी से हुआ | वह देवी अम्बा माता की अराधना करते थे | गिरनार और काठियवार के अम्बा-स्थान नामक क्षेत्र में बसने के  कारण उनका नाम अम्बष्ट पड़ा | श्री हिमवान की  पांच दिव्य संतानें हुईं : श्री नागसेन , श्री गयासेन, श्री गयादत्त, श्री रतनमूल और श्री देवधर | ये पाँचों पुत्र विभिन्न स्थानों में जाकर बसे और इन स्थानों पर  अपने वंश को आगे बढ़ाया | इनका विभाजन : नागसेन २४ अल , गयासेन ३५ अल, गयादत्त ८५ अल, रतनमूल २५ अल, देवधर २१ अल में है | अंततः वह पंजाब में जाकर बसे जहाँ उनकी पराजय सिकंदर के सेनापति और उसके बाद चन्द्रगुप्त मौर्य के हाथों हुई| अम्बष्ट कायस्थ  बिजातीय विवाह की परंपरा का पालन करते हैं और इसके लिए "खास घर" प्रणाली का उपयोग करते हैं | इन घरों के नाम उपनाम के रूप में भी इस्तेमाल किये जाते हैं | ये "खास घर"(जिनसे  मगध राज्य के उन गाँवों का नाम पता चलता है जहाँ मौर्यकाल में तक्षशिला से विस्थापित होने के उपरान्त अम्बष्ट आकर बसे थे) इनमें से कुछ घरों के नाम
हैं- भीलवार, दुमरवे, बधियार, भरथुआर, निमइयार, जमुआर, कतरयार पर्वतियार, मंदिलवार, मैजोरवार, रुखइयार, मलदहियार, नंदकुलियार, गहिलवार, गयावार, बरियार, बरतियार, राजगृहार, देढ़गवे, कोचगवे, चारगवे, विरनवे, संदवार, पंचबरे, सकलदिहार, करपट्ने, पनपट्ने, हरघवे, महथा, जयपुरियार ...आदि|
6. श्री चारुण (कर्ण) - उनका राशि नाम दामोदर था एवं उनका विवाह देवी कोकलसुता से हुआ | वह देवी लक्ष्मी की आराधना करते थे और वैष्णव थे | महाराज चित्रगुप्त जी ने श्री चारूण को कर्ण क्षेत्र (आधुनिक कर्नाटक) में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था | उनके वंशज समय के साथ उत्तरी राज्यों में प्रवासित हुए और आज नेपाल, उड़ीसा एवं बिहार में पाए जाते हैं | उनकी बिहार की शाखा दो भागों में विभाजित है : 'गयावाल कर्ण' – जो गया में बसे और 'मैथिल कर्ण' जो  मिथिला में जाकर बसे | इनमें दास, दत्त, देव, कण्ठ, निधि, मल्लिक, लाभ, चौधरी, रंग आदि पदवी प्रचलित है| मैथिल कर्ण कायस्थों की एक विशेषता उनकी पंजी पद्धति है | पंजी वंशावली रिकॉर्ड की एक प्रणाली है | कर्ण 360 अल में विभाजित हैं | इस विशाल संख्या का कारण वह कर्ण परिवार हैं जिन्हों ने कई चरणों में दक्षिण भारत से उत्तर की ओर पलायन किया | इस समुदाय का महाभारत के कर्ण से कोई सम्बन्ध नहीं है |
7. श्री चित्रचारू (निगम) उनका राशि नाम सुमंत था और उनका विवाह अशगंधमति से हुआ | वह देवी दुर्गा की अराधना करते थे | महाराज चित्रगुप्त जी ने श्री चित्रचारू को महाकोशल और निगम क्षेत्र(सरयू नदी के तट पर)  में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा | उनके वंशज वेदों और शास्त्रों की विधियों में पारंगत थे जिससे उनका नाम निगम पड़ा | आज के समय में कानपुर, फतेहपुर, हमीरपुर, बंदा, जलाओं, महोबा में रहते हैं | वह 43 अल में विभाजित हैं | कुछ अल इस प्रकार हैं- कानूनगो, अकबरपुर, अकबराबादी, घताम्पुरी, चौधरीकानूनगो बाधा, कानूनगो जयपुर, मुंशी इत्यादि|
8.श्री अतिन्द्रिय (कुलश्रेष्ठ)- उनका राशि नाम सदानंद है और उन्हों ने देवी मंजुभाषिणी से विवाह किया | वह देवी लक्ष्मी की आराधना करते हैं | महाराज चित्रगुप्त जी ने श्री अतिन्द्रिय (जितेंद्रिय) को कन्नौज क्षेत्र में राज्य स्थापित करने भेजा था| श्री अतियेंद्रिय चित्रगुप्त जी की बारह संतानों में से अधिक धर्मनिष्ठ और सन्यासी प्रवृत्ति वाली संतानों में से थे | उन्हें 'धर्मात्मा' और 'पंडित' नाम से जाना गया और स्वभाव से धुनी थे | उनके वंशज कुलश्रेष्ठ नाम से जाने गए | आधुनिक काल में वे मथुरा, आगरा, फर्रूखाबाद, इटाह, इटावाह और मैनपुरी में पाए जाते हैं | कुछ कुलश्रेष्ठ जो की माता नंदिनी के वंश से हैं, नंदीगांव - बंगाल में पाए जाते हैं |
 9. श्रीभानु (श्रीवास्तव)  - उनका राशि नाम धर्मध्वज था | चित्रगुप्त जी ने श्री श्रीभानु को श्रीवास (श्रीनगर) और कान्धार  के इलाके में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था | उनका विवाह नागराज वासुकी की पुत्री पद्मिनी से हुआ | उस विवाह से श्री देवदत्त और श्री घनश्याम नामक दो  दिव्य  पुत्रों की उत्पत्ति  हुई | श्री देवदत्त को कश्मीर का एवं श्री घनश्याम को सिन्धु नदी के तट का राज्य मिला  |  श्रीवास्तव 2 वर्गों में विभाजित हैं यथा खर एवं दूसर| कुछ अल इस प्रकार हैं - वर्मा, सिन्हा, अघोरी, पडे, पांडिया, रायजादा, कानूनगो, जगधारी, प्रधान, बोहर, रजा सुरजपुरा, तनद्वा, वैद्य, बरवारिया, चौधरी, रजा संडीला, देवगन इत्यादि|

10. श्री विभानु (सूर्यध्व्ज)- उनका राशि नाम श्यामसुंदर था | उनका विवाह देवी मालती से हुआ | महाराज चित्रगुप्त ने श्री विभानु को काश्मीर के उत्तर क्षेत्रों में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा | चूंकि उनकी माता दक्षिणा सूर्यदेव की पुत्री थीं, तो उनके वंशज सूर्यदेव का चिन्ह अपनी पताका पर लगाये और सूर्यध्व्ज नाम से जाने गए | अंततः वह मगध में आकर बसे|

11. श्री विश्वभानु (वाल्मिक) - उनका राशि नाम दीनदयाल था और वह देवी शाकम्भरी की आराधना करते
थे | महाराज चित्रगुप्त जी ने उनको चित्रकूट और नर्मदा के समीप वाल्मीकि क्षेत्र में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था | श्री विश्वभानु का विवाह नागकन्या देवी बिम्ववती से हुआ | यह ज्ञात है की उन्होंने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा नर्मदा नदी के तट पर तपस्या करते हुए बिताया | इस तपस्या के समय उनका पूर्ण शरीर वाल्मीकि नामक लता से ढका हुआ था | उनके वंशज वाल्मीकि नाम से जाने गए और वल्लभपंथी बने | उनके पुत्र श्री चंद्रकांत गुजरात में जाकर बसे तथा अन्य पुत्र अपने परिवारों के साथ उत्तर भारत में गंगा और हिमालय के समीप प्रवासित हुए | आज वह गुजरात और महाराष्ट्र में पाए जाते हैं | गुजरात में  उनको "वल्लभी कायस्थ" भी कहा जाता है |

12. श्री वीर्यभानु (अष्ठाना) - उनका राशि नाम माधवराव था और उन्हीं ने देवी सिंघध्वनि से विवाह किया |
वे देवी शाकम्भरी की पूजा किया करते थे| महाराज चित्रगुप्त जी ने श्री वीर्यभानु को आधिस्थान में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा | उनके वंशज अष्ठाना नाम से जाने गए और रामनगर- वाराणसी के महाराज ने उन्हें अपने आठ रत्नों में स्थान दिया | आज अष्ठाना उत्तर प्रदेश के कई जिले और बिहार के सारन, सिवान , चंपारण, मुजफ्फरपुर, सीतामढ़ी, दरभंगा और भागलपुर क्षेत्रों में रहते हैं | मध्य प्रदेश में भी उनकी संख्या ध्यान रखने योग्य है | वह ५ अल में विभाजित हैं |
नोट - कुछ विद्वानों के अनुसार वीर्यभानू (वाल्मीकि ) और विश्वभानू (अष्ठाना ) इरावती माता के पुत्र तथा चित्रचारू (निगम ) और अतीन्द्रिय (कुलश्रेष्ठ) नंदिनी माता के पुत्र मान्य है | इसका एक मात्र प्रमाण कुछ घरो में विराजित श्री चित्रगुप्त जी महाराज का चित्र है। आजकल सिन्हा, वर्मा, प्रसाद...आदि टाइटिल रखने का प्रचलन दूसरी जातिओं में भी देखा जाता है|
स्रोत -
http://www.kanchipuramchitragupta.com/p/about-temple.html
http://www.chitragupt.co.uk/
http://www.kayastha.org/kayastha-parivar

ऋता शेखर मधु